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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - वह [पुरुष परमात्मा] (त्रिभिः) तीन (पद्भिः) पादों [अंशों] से (द्याम्) [अपने] प्रकाशस्वरूप में (अरोहत्) प्रकट हुआ, (तस्य) इस [पुरुष] का (पात्) एक पाद [अंश] (इह) यहाँ [जगत् में] (पुनः) बार-बार [सृष्टि और प्रलय के चक्र से] (अभवत्) वर्तमान हुआ। (तथा) फिर (विष्वङ्) सर्वव्यापक वह (अशनानशने अनु) खानेवाले चेतन और न खानेवाले जड़ जगत् में (वि) विविध प्रकार से (अक्रामत्) व्याप्त हुआ ॥२॥
भावार्थभाषाः - वह परमेश्वर संसार की अपेक्षा तीन चौथाई अर्थात् बहुत ही बड़ा है और इतना बड़ा ब्रह्माण्ड उसके सामर्थ्य का एक चौथायी अर्थात् बहुत थोड़ा अंश है। वह सब चराचर जगत् को उत्पन्न कर के सब में व्याप्त हो रहा है ॥२॥
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।४, यजुर्वेद ३१।४ और सामवेद पू० ६।१३।४ ॥ २−त्रिभिः (पद्भिः) पादैः। अंशैः (द्याम्) स्वप्रकाशस्वरूपम् (अरोहत्) प्रकटीकृतवान् (पात्) पद गतौ स्थैर्य्ये च−णिचि क्विप्। पादः। चतुर्थांशः (इह) संसारे (अभवत्) (पुनः) वारम्वारम्। सृष्टिप्रलयरूपचक्रेण (तथा) अनन्तरम् (वि) विविधम् (अक्रामत्) व्याप्नोत् (विष्वङ्) सर्वतोऽञ्चनः। विश्वव्यापनः (अशनानशने) कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। अश भोजने-कर्तरि ल्युट्। भक्षणाभक्षणशीले। चेतनाचेतने द्विप्रकारे जगती (अनु) प्रति ॥