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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुषात्) पुरुष [पूर्ण परमात्मा] से (अधि) अधिकारपूर्वक (जातस्य) उत्पन्न हुए (बृहतः) बड़े (देवस्य) प्रकाशमान सूर्य के (मूर्ध्नः) मस्तक की (सप्त) सात [वर्णवाली] (सप्ततीः) नित्य सम्बन्धवाली [अथवा सात गुणित सत्तर, चार सौ नब्बे अर्थात् असंख्य] (अंशवः) किरणें (राज्ञः) प्रकाशमान (सोमस्य) चन्द्रमा की [किरणें] (अजायन्त) प्रकट हुई हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - सृष्टिक्रम विचारनेवाले विद्वान् लोगों को जानना चाहिये कि परमात्मा के नियम से शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्र वर्णवाली अथवा असंख्य किरणें पृथिवी की अपेक्षा बड़े सूर्य से आकर चन्द्रमा को प्रकाशित करती हैं ॥१६॥
टिप्पणी: यह मन्त्र अन्य वेदों में नहीं है ॥ १६−(मूर्ध्नः) मस्तकस्य (देवस्य) प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (बृहतः) पृथिव्यादिलोकेभ्यो महतः (अंशवः) किरणाः (सप्त) अ० ९।५।१५ सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। षप समवाये-कनिन् तुट् च। शुक्लनीलपीतादिसप्तवर्णाः (सप्ततीः) वहिवस्यर्त्तिभ्यश्चित्। उ० ४।६०। षप समवाये-अति प्रत्ययः, चित् तुट् च, यथा वेतसशब्देऽपि−उ० ३।११८। छान्दसं रूपम्। सप्ततयः। नित्यपरस्परसम्बद्धाः। अथवा (सप्त सप्ततीः) सप्त सप्ततयः सप्तगुणितसप्ततिसंख्याका दशोनपञ्चशतसंख्याकाः। असंख्या इत्यर्थः (राज्ञः) दीप्यमानस्य (सोमस्य) चन्द्रलोकस्य (अजायन्त) प्रादुरभवन् (जातस्य) उत्पन्नस्य (पुरुषात्) पूर्णात् परमेश्वरात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् ॥