उपा॒स्मान्प्रा॒णो ह्व॑यता॒मुप॑ प्रा॒णं ह॑वामहे। वर्चो॑ जग्राह पृथि॒व्यन्तरि॑क्षं॒ वर्चः॒ सोमो॒ बृह॒स्पति॑र्विध॒त्ता ॥
पद पाठ
उप। अस्मान्। प्राणः। ह्वयताम्। उप। वयम्। प्राणम्। हवामहे। वर्चः। जग्राह। पृथिवी। अन्तरिक्षम्। वर्चः। सोमः। बृहस्पतिः। विऽधत्ता ॥५८.२॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:58» पर्यायः:0» मन्त्र:2
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणः) प्राण (अस्मान्) हमको (उप ह्वयताम्) समीप बुलावे, (वयम्) हम (प्राणम्) प्राण को (उप हवामहे) समीप बुलाते हैं। (पृथिवी) पृथिवी और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष ने (वर्चः) तेज (जग्राह) ग्रहण किया है, (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के स्वामी], (विधत्ता) पोषण करनेवाले (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुष ने (वर्चः) तेज [ग्रहण किया] है ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपनी आत्मा और शरीर की सदा रक्षा करके उनके द्वारा उपकारी होवे, जैसे पृथिवी और आकाश बलवान् होकर पदार्थों और लोकों को धारण करते हैं और जैसे विद्वान् तेजस्वी पुरुष विविध कार्य सिद्ध करता है ॥२॥
टिप्पणी: २−(उप) समीपे (अस्मान्) (प्राणः) म० १। शरीरधारको वायुः (ह्वयताम्) (उप) (वयम्) (प्राणम्) शरीरधारकं वायुम् (हवामहे) आह्वयामः (वर्चः) तेजः (जग्राह) स्वीचकार (पृथिवी) (अन्तरिक्षम्) (वर्चः) (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः (विधत्ता) आकारस्य ह्रस्वे कृते तकारस्य द्वित्वम्। विधाता। विविधपोषकः ॥