घृ॒तस्य॑ जू॒तिः सम॑ना सदे॑वा संवत्स॒रं ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्ती। श्रोत्रं॒ चक्षुः॑ प्रा॒णोऽच्छि॑न्नो नो अ॒स्त्वच्छि॑न्ना व॒यमायु॑षो॒ वर्च॑सः ॥
पद पाठ
घृतस्य। जूतिः। समना। सऽदेवा। सम्ऽवत्सरम्। हविषा। वर्धयन्ती। श्रोत्रम्। चक्षुः। प्राणः। अच्छिन्नः। न। अस्तु। अच्छिन्नाः। वयम्। आयुषः। वर्चसः ॥५८.१॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:58» पर्यायः:0» मन्त्र:1
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (घृतस्य) प्रकाश की (समना) मनोहर, (सदेवा) इन्द्रियों के साथ रहनेवाली (जूतिः) वेग गति (हविषा) दान से (संवत्सरम्) वर्ष [जीवनकाल] को (वर्धयन्ती) बढ़ाती हुई [रहे]। (नः) हमारा (श्रोत्रम्) कान, (चक्षुः) आँख और (प्राणः) प्राण (अच्छिन्नः) निर्हानि (अस्तु) होवे, (वयम्) हम (आयुषः) जीवन से और (वर्चसः) तेज से (अच्छिन्नाः) निर्हानि [होवें] ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को चाहिये कि विद्या आदि से शीघ्र प्रतापी होकर अपने आत्मा और शरीर की उन्नति करे ॥१॥
टिप्पणी: १−(घृतस्य) प्रकाशस्य (जूतिः) वेगगतिः (समना) मन ज्ञाने-अच्, टाप्। मनोहरा (सदेवा) इन्द्रियैः सह वर्तमाना (संवत्सरम्) वर्षं जीवनकालम् (हविषा) दानेन (वर्धयन्ती) समर्धयन्ती (श्रोत्रम्) श्रवणम् (चक्षुः) नेत्रम् (प्राणः) शरीरधारकः पञ्चवृत्तिको वायुः (अच्छिन्नः) अभिन्नः। निर्हानिः (नः) अस्माकम् (अस्तु) (अच्छिन्नाः) निर्हानयः (वयम्) (आयुषः) जीवनात् (वर्चसः) प्रतापात् ॥