देवा॑नां पत्नीनां गर्भ॒ यम॑स्य कर॒ यो भ॒द्रः स्व॑प्न। स मम॒ यः पा॒पस्तद्द्वि॑ष॒ते प्र हि॑ण्मः। मा तृ॒ष्टाना॑मसि कृष्णशकु॒नेर्मुख॑म् ॥
पद पाठ
देवानाम्। पत्नीनाम्। गर्भ। यमस्य। कर। यः। भद्रः। स्वप्न। सः। मम। यः। पापः। तत्। द्विषते। प्र। हिण्मः। मा। तृष्टानाम्। असि। कृष्णऽशकुनः। मुखम् ॥५७.३॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:57» पर्यायः:0» मन्त्र:3
बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
बुरे स्वप्न दूर करने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (देवानाम्) हे विद्वानों की (पत्नीनाम्) पालन शक्तियों के (गर्भ) गर्भ ! [उदररूप पोषक] और (यमस्य) हे यम [मृत्यु] के (कर) हाथ ! (स्वप्न) हे स्वप्न ! (यः) जो तू (भद्रः) कल्याणकारी है, (सः) वह (मम) मेरा [होवे], (तत्) इसलिये (यः) जो तू (पापः) पापी [अनहित] है, [उसे] (द्विषते) वैरी के लिये (प्र हिण्मः) हम भेजते हैं। (तृष्टानाम्) क्रूरों के मध्य (कृष्णशकुनेः) काले पक्षी [कौवे आदि] का (मुखम्) मुख (मा असि) तू मत हो ॥३॥
भावार्थभाषाः - स्वप्न दो प्रकार के हैं, एक शुभ विद्वानों के हितकारी और दूसरे अशुभ जो दुःखदायी हैं, विद्वान् लोग अपने शुभ विचारों के अनुरूप शुभ स्वप्न देखें और कुविचारों के कारण से कुस्वप्न देखकर शत्रु न बनें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(देवानाम्) विदुषाम् (पत्नीनाम्) पालनशक्तीनाम् (गर्भ) हे उदरवत् पोषक (यमस्य) मृत्योः (कर) हे हस्त इव हितकर (यः) यस्त्वम् (भद्रः) कल्याणकारी भवसि (स्वप्न) (सः) स त्वम् (मम) भवेः-इति शेषः (यः) त्वम् (पापः) अनिष्टकारी भवसि (तत्) तस्मात् (द्विषते) शत्रवे (प्र हिण्मः) हि गतौ, अन्तर्गतण्यर्थः। प्रेरयामः (तृष्टानाम्) ञितृषा पिपासायाम्-क्त। तृषितानां लोभिनां क्रूराणां मध्ये (मा असि) मा भव (कृष्णशकुनेः) कृष्णपक्षिणः। काकादेः (मुखम्) मुखमिव क्रूरम् ॥