वि॒द्म ते॒ सर्वाः॑ परि॒जाः पु॒रस्ता॑द्वि॒द्म स्व॑प्न॒यो अ॑धि॒पा इ॒हा ते॑। य॑श॒स्विनो॑ नो॒ यश॑से॒ह पा॑ह्या॒राद्द्वि॒षेभि॒रप॑ याहि दू॒रम् ॥
पद पाठ
विद्म। ते। सर्वाः। परिऽजाः। पुरस्तात्। विद्म। स्वप्न। यः। अधिऽपाः। इह। ते। यशस्विनः। नः। यशसा। इह। पाहि। आरात्। द्विषेभिः। अप। याहि। दूरम् ॥५६६॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:56» पर्यायः:0» मन्त्र:6
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
निद्रा त्याग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (स्वप्न) हे स्वप्न ! (पुरस्तात्) सामने [रहनेवाले] (ते) तेरे (सर्वाः) सब (परिजाः) परिवारों [काम, क्रोध, लोभ आदि] को (विद्म) हम जानते हैं, और [उस परमेश्वर को] (विद्म) हम जानते हैं (यः) जो (इह) यहाँ पर (ते) तेरा (अधिपाः) बड़ा राजा है। (यशस्विनः नः) हम यशस्वियों को (यशसा) धन [वा कीर्ति] के साथ (इह) यहाँ पर (पाहि) पाल (द्विषेभिः) वैर भावों के साथ (आरात्) दूर (दूरम्) दूर (अप याहि) तू चला जा ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि स्वप्न वा आलस्य के कारण अर्थात् काम क्रोध आदि को त्याग कर परमेश्वर के आश्रय से यशस्वी होकर अपनी सम्पत्ति और कीर्ति को बनाये रक्खें, और कभी परस्पर द्वेष न करें ॥६॥
टिप्पणी: ६−(विद्म) जानीम (ते) तव (सर्वाः) (परिजाः) जनसनखनक्रम०। पा० ३।२।६७। परि+जनी प्रादुर्भावे-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। वा० ६।४।४१। अनुनासिस्य आकारः। परिजनान्। कामक्रोधलोभादीन् (पुरस्तात्) अग्रे वर्तमानाः (विद्म) (स्वप्न) (यः) (अधिपाः) स्वामी। परमेश्वर इत्यर्थः (इह) अत्र (ते) तव (यशस्विनः) कीर्तियुक्तान् (नः) अस्मान् (यशसा) धनेन। कीर्त्या (इह) (पाहि) रक्ष (आरात्) दूरे (द्विषेभिः) द्वेषैः (अप याहि) अपगच्छ (दूरम्) ॥