य॒मस्य॑ लो॒कादध्या ब॑भूविथ॒ प्रम॑दा॒ मर्त्या॒न्प्र यु॑नक्षि॒ धीरः॑। ए॑का॒किना॑ स॒रथं॑ यासि वि॒द्वान्त्स्वप्नं॒ मिमा॑नो॒ असु॑रस्य॒ योनौ॑ ॥
पद पाठ
यमस्य। लोकात्। अधि। आ। बभूविथ। प्रऽमदा। मर्त्यान्। प्र। युनक्षि। धीरः। एकाकिना। सऽरथम्। यासि। विद्वान्। स्वप्नम्। मिमानः। असुरस्य। योनौ ॥५६.१॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:56» पर्यायः:0» मन्त्र:1
बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
निद्रा त्याग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे स्वप्न !] (यमस्य) यम [मृत्यु] के (लोकात्) लोक से (अधि) अधिकारपूर्वक (आ बभूविथ) तू आया है, (धीरः) धीर [धैर्यवान्] तू (प्रमदा) आनन्द के साथ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (प्र युनक्षि) काम में लाता है। (असुरस्य) प्राणवाले [जीव] के (योनौ) घर में (स्वप्नम्) निद्रा (मिमानः) करता हुआ (विद्वान्) जानकार तू (एकाकिना) एकाकी [मृत्यु] के साथ (सरथम्) एक रथ में होकर (यासि) चलता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - स्वप्न वा आलस्य के कारण अवसर चूककर मनुष्य कष्टों में पड़कर मृत्यु पाते हैं ॥१॥
टिप्पणी: इस सूक्त का अर्थ अधिक विचारो और मिलान करो-अ० का० ६। सू० ४६ तथा का० १६। सू० ५॥ १−(यमस्य) मृत्योः (लोकात्) स्थानात् (अधि) अधिकृत्य (आ बभूविथ) प्राप्तोऽसि (प्रमदा) प्रकृष्टसुखेन (मर्त्यान्) मनुष्यान् (प्र युनक्षि) प्रयुक्तान् करोषि (धीरः) धैर्यवांस्त्वम् (एकाकिना) एकादाकिनिच्चासहाये। पा० ५।३।५२। एक-आकिनिच्। असहायेन मृत्युना (सरथम्) समाने रथे भूत्वा (यासि) गच्छसि (विद्वान्) जानन् (स्वप्नम्) निद्राम् (मिमानः) निर्मिमाणः कुर्वन् (असुरस्य) प्राणवतो प्राणवतो जीवस्य (योनौ) गृहे ॥