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या ते॒ वसो॒र्वात॒ इषुः॒ सा त॑ ए॒षा तया॑ नो मृड। रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॑न्तो॒ मा ते॑ अग्ने॒ प्रति॑वेशा रिषाम ॥

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पद पाठ

या। ते। वसोः। वातः। इषुः। सा। ते। एषा। तया। नः। मृड। रायः। पोषेण। सम्। इषा। मदन्तः। मा। ते। अग्ने। प्रतिऽवेशाः। रिषाम ॥५५.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:55» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

गृहस्थ धर्म का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वन् !] (ते वातः) तुझ चलते-फिरते की [हमारे लिये] (वसोः) उत्तम पदार्थ की (या) जो (इषुः) इच्छा है, (सा) सो (एषा) वह (ते) तेरी [ही] है, (तया) उस [इच्छा] से (नः) हमें (मृड) सुखी कर। (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से और (इषा) अन्न से (सम्) अच्छे प्रकार (मदन्तः) आनन्द करते हुए, (ते) तेरे (प्रतिवेशाः) सन्मुख रहनेवाले हम, (अग्ने) हे अग्नि ! [तेजस्वी विद्वान्] (मा रिषाम) न दुःखी होवें ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य दूसरों की उन्नति का प्रयत्न करता है, वह अपनी ही उन्नति करता है, इससे प्रत्येक मनुष्य पुरुषार्थ करके सबको सुख पहुँचावे ॥२॥
टिप्पणी: २−(या) इच्छा (ते) तव (वसोः) श्रेष्ठपदार्थस्य (वातः) वा गतिगन्धनयोः-शतृ। गच्छतः पुरुषस्य (इषुः) इच्छा (सा) तादृशी (ते) तव (एषा) इच्छा वर्तते (तया) इच्छया (नः) अस्मान् (मृड) सुखय। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥