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का॒लेऽयमङ्गि॑रा दे॒वोऽथ॑र्वा॒ चाधि॑ तिष्ठतः। इ॒मं च॑ लो॒कं प॑र॒मं च॑ लो॒कं पुण्यां॑श्च लो॒कान्विधृ॑तीश्च॒ पुण्याः॑। सर्वां॑ल्लो॒कान॑भि॒जित्य॒ ब्रह्म॑णा का॒लः स ई॑यते पर॒मो नु दे॒वः ॥

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पद पाठ

काले। अयम्। अङ्गिराः। देवः। अथर्वा। च। अधि। तिष्ठतः। इमम्। च। लोकम्। परमम्। च। लोकम्। पुण्यान्। च। लोकान्। विऽधृतीः। च। पुण्याः। सर्वान्। लोकान्। अभिऽजित्य। ब्रह्मणा। कालः। सः। ईयते। परमः। नु। देवः ॥५४.५॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:54» पर्यायः:0» मन्त्र:5


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

काल की महिमा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (काले) काल [समय] में (अयम्) यह (अङ्गिराः) अङ्गिराः [ज्ञानवान्] (देवः) व्यवहारकुशल मनुष्य (च) और (अथर्वा) अङ्गिराः [निश्चलस्वभाव ऋषि] (अधि) अधिकारपूर्वक (तिष्ठतः) दोनों स्थित हैं। (इमम्) इस (लोकम्) लोक को (च च) और (परमम्) सबसे ऊँचे (लोकम्) लोक को (च) और (पुण्यान्) पुण्य (लोकान्) लोकों को (च) और (पुण्याः) पुण्य (विधृतीः) विविध धारणशक्तियों को [अर्थात्] (सर्वान्) सब (लोकान्) लोकों को (अभिजित्य) सर्वथा जीतकर, (ब्रह्मणा) ब्रह्म [परमेश्वर] के साथ, (सः) वह (परमः) सबसे बड़ा (देवः) दिव्य (कालः) काल (नु) शीघ्र (ईयते) चलता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - काल के सादर निरन्तर सेवन से मनुष्य ज्ञानी ऋषि होकर और सब व्यवहारों और समाजों में प्रतिष्ठा पाकर परम गति प्राप्त कर आनन्द भोगते हैं ॥५॥
टिप्पणी: ५−(काले) (अयम्) (अङ्गिराः) अ० २।१२।४। अगि गतौ-असि, इरुडागमः। ज्ञानवान् पुरुषः (देवः) व्यवहारकुशलः (अथर्वा) अ० ४।१।७। अ+थर्व चरणे गतौ-वनिप्, वकारलोपः। निश्चलस्वभाव ऋषिः (च) (अधि) अधिकृत्य (तिष्ठतः) वर्तेते (इमम्) (च) (लोकम्) दृश्यमानं स्थानम् (परमम्) उत्कृष्टम् (च) (पुण्यान्) शुद्धान् शुभान् (च) (लोकान्) (विधृतीः) विविधधारिकाः शक्तीः (सर्वान्) (लोकान्) (अभिजित्य) अभिभूय (ब्रह्मणा) परमात्मना सह (कालः) (सः) प्रसिद्धः (ईयते) ईङ् गतौ-लट्। गच्छति (परमः) उत्कृष्टः (नु) शीघ्रम् (देवः) दिव्यः ॥