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देवता: कालः ऋषि: भृगुः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: काल सूक्त

का॒ले तपः॑ का॒ले ज्येष्ठं॑ का॒ले ब्रह्म॑ स॒माहि॑तम्। का॒लो ह॒ सर्व॑स्येश्व॒रो यः पि॒तासी॑त्प्र॒जाप॑तेः ॥

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पद पाठ

काले। तपः। काले। ज्येष्ठम्। काले। ब्रह्म। सम्ऽआहितम्। कालः। ह। सर्वस्य। ईश्वरः। यः। पिता। आसीत्। प्रजाऽपतेः ॥५३.८॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:53» पर्यायः:0» मन्त्र:8


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

काल की महिमा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (काले) काल [समय] में (तपः) तप [ब्रह्मचर्यादि], (काले) काल में (ज्येष्ठम्) श्रेष्ठ कर्म, (काले) काल में (ब्रह्म) वेदज्ञान, (समाहितम्) संग्रह किया गया है। (कालः) काल (ह) ही (सर्वस्य) सबका (ईश्वरः) स्वामी है, (यः) जो [काल] (प्रजापतेः) प्रजापति [प्रजापालक मनुष्य] का (पिता) पिता [के समान पालक] (आसीत्) हुआ है ॥८॥
भावार्थभाषाः - काल के ही उत्तम उपयोग से मनुष्य ब्रह्मचर्य के साथ श्रेष्ठ कर्म और वेदाध्ययन् आदि करते और प्रजापालक होते हैं ॥८॥
टिप्पणी: ८−(काले) (तपः) ब्रह्मचर्यादितपश्चरणम् (काले) (ज्येष्ठम्) श्रेष्ठं कर्म (काले) (ब्रह्म) वेदज्ञानम् (समाहितम्) स्थापितम् (कालः) (ह) एव (सर्वस्य) जगतः (ईश्वरः) स्वामी (यः) कालः (पिता) पितृवत् पालकः (आसीत्) अभवत् (प्रजापतेः) प्रजापालकपुरुषस्य ॥