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अप॑ स्ते॒नं वासो॑ गोअ॒जमु॒त तस्क॑रम्। अथो॒ यो अर्व॑तः॒ शिरो॑ऽभि॒धाय॒ निनी॑षति ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप। स्तेनम्। वासः। गोऽअजम्। उत। तस्करम् ॥ अथो इति। यः। अर्वतः। शिरः। अभिऽधाय। निनीषति ॥५०.५॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:50» पर्यायः:0» मन्त्र:5


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रात्रि में रक्षा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - तू (स्तेनम्) चोर को (उत) और (गोअजम्) गौ को हाँक ले जानेवाले (तस्करम्) लुटेरे को (अप वासः) बाहिर बसा दे। (अथो) और भी [उसको], (यः) जो (अर्वतः) घोड़े के (शिरः) शिर को (अभिधाय) बाँधकर (निनीषति) [उसे] ले जाना चाहता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष गौ आदि दूध के पशुओं को चुरा ले जावें, और इसलिये कि घोड़े फिर घर को न लौट आवें और न शब्द करें, उनका शिर अर्थात् आँखें और मुख बन्द करके भगा ले जावें, उन्हें देश से निकाल देना चाहिये ॥५॥
टिप्पणी: ५−(अप) दूरे (स्तेनम्) चोरम् (वासः) वस निवासे-णिजन्ताल्लेटि। छान्दसं रूपम्। त्वं वासयः। निवासं देहि (गोअजम्) गो+अज गतिक्षेपणयोः अच्। सर्वत्र विभाषा गोः। पा० ६।१।१२२। इति प्रकृतिभावः। गोः क्षेप्तारं प्रेरकम् (उत) अपि च (तस्करम्) (अथो) अपि च (यः) तस्करः (अर्वतः) अश्वस्य (शिरः) (अभिधाय) बध्वा (निनीषति) अपजिहीर्षति ॥