बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (रात्रि) हे रात्रि ! (ये) जो (ते) तेरे (नृचक्षसः) मनुष्यों पर दृष्टि रखनेवाले (द्रष्टारः) दर्शक लोग (नवतिः नव) नब्वे और नौ [निन्नानवे], (अशीतिः अष्टौ) अस्सी और आठ [अठासी] (उतो) और (ते) तेरे (सप्ततिः सप्त) सत्तर और सात [सतहत्तर] (सन्ति) हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - मन्त्र ३-५ में ९९ में से ११, ११ घटते-घटते ११ तक रहे हैं और [नीचे] शब्द से शेष संख्या एक तक मानी है। भाव यह है कि मनुष्य अपनी योग्यता के अनुसार बहुत वा थोड़े रक्षकों द्वारा रात्रि में रक्षा करते रहें ॥३-५॥
टिप्पणी: ३−(ये) (ते) तव (रात्रि) हे रात्रि (नृचक्षसः) मनुष्येषु दृष्टियुक्ताः (द्रष्टारः) दर्शकाः। रक्षकाः (नवतिर्नव) नवोत्तरनवतिसंख्याकाः (अशीतिः अष्टौ) अष्टोत्तराशीतिसंख्याकाः (सन्ति) भवन्ति (उतो) अधि च (सप्ततिः सप्त) सप्तोत्तरसप्ततिसंख्याकाः ॥