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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (रात्रि) हे रात्रि ! (पार्थिवम्) पृथिवी संबन्धी (रजः) लोक, (पितुः) पिता [मध्यलोक] के (धामभिः) स्थानों के साथ [अन्धकार से] (आ) सर्वथा (अप्रायि) भर गया है। (बृहती) बड़ी तू (दिवः) प्रकाश के (सदांसि) स्थानों को (वि तिष्ठसे) व्याप्त होती है, (त्वेषम्) चमकीला [ताराओंवाला] (तमः) अन्धकार (आ वर्तते) आकर घेरता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - पृथिवी की गोलाई, और सूर्य के चारों और दैनिक घुमाव के कारण, पृथिवी का आधा भाग प्रत्येक समय सूर्य से आड़ में रहता है, अर्थात् प्रत्येक क्षण आधे भाग में अन्धकार और आधे में प्रकाश होता जाता है। अन्धकार समय को रात्रि कहते हैं। रात्रि में तारे और चन्द्र चमकते दीखते हैं। मनुष्य रात्रिसमय को यथावत् काम में लावें ॥१॥
टिप्पणी: यह मन्त्र यजुर्वेद में है-३६।३२ और-निरुक्त ९।२९ में भी व्याख्यात है ॥ १−(आ) समन्तात् (रात्रि) हे रात्रि (पार्थिवम्) पृथिवीसम्बन्धि (रजः) लोकः (पितुः) पालकस्य। मध्यलोकस्य (अप्रायि) प्रा पूरणे-कर्मणि लुङ्। अपूरि (धामभिः) स्थानैः सह (दिवः) प्रकाशस्य (सदांसि) स्थानानि (बृहती) महती त्वम् (वितिष्ठसे) व्याप्नोषि (आ) समन्तात् (त्वेषम्) ताराभिर्दीप्यमानम् (वर्तते) विद्यते (तमः) अन्धकारः ॥