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यथा॒ त्वमु॑त्त॒रोऽसो॑ असप॒त्नः स॑पत्न॒हा। स॑जा॒ताना॑मसद्व॒शी तथा॑ त्वा सवि॒ता क॑र॒दस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यथा। त्वम्। उत्ऽतरः। असः। असपत्नः। सपत्नऽहा। सऽजातानाम्। असत्। वशी। तथा। त्वा। सविता। करत्। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.७॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:46» पर्यायः:0» मन्त्र:7


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

विजय की प्राप्ति का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (यथा) जिससे (त्वम्) तू (उत्तरः) अति ऊँचा, (असपत्नः) बिना शत्रु और (सपत्नहा) शत्रुओं का मारनेवाला (असः) होवे। और आप (सजातानाम्) सजातियों के (वशी) वश में करनेवाला (असत्) होवे, (तथा) वैसा ही (त्वा) तुझको (सविता) सबका प्रेरक [परमात्मा] (करत्) बनावे, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥७॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के वेदोक्त नियम पर चलनेवाले मनुष्य सब विघ्नों को हटाकर आनन्द से रहें ॥७॥
टिप्पणी: ७−(यथा) येन प्रकारेण (त्वम्) (उत्तरः) उत्कृष्टतरः (असः) अस्तेर्लेटि रूपम्। भवेः (असपत्नः) अशत्रुः (सपत्नहा) विरोधिनां हन्ता (सजातानाम्) समानजन्मनां पुरुषाणाम् (असत्) भवेद् भवान्। भवच्छब्दयोगे प्रथमपुरुषः (वशी) वशयिता (तथा) तेन प्रकारेण (सविता) सर्वप्रेरकः परमात्मा (करत्) कुर्यात्। अन्यत् पूर्ववत् ॥