इन्द्र॑स्य त्वा॒ वर्म॑णा॒ परि॑ धापयामो॒ यो दे॒वाना॑मधिरा॒जो ब॒भूव॑। पुन॑स्त्वा दे॒वाः प्र ण॑यन्तु॒ सर्वेऽस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
पद पाठ
इन्द्रस्य। त्वा। वर्मणा। परि। धापयामः। यः। देवानाम्। अधिऽराजः। बभूव। पुनः। त्वा। देवाः। प्र। नयन्तु। सर्वे। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.४॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:46» पर्यायः:0» मन्त्र:4
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विजय की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (त्वा) तुझको (इन्द्रस्य) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] के (वर्मणा) कवच से (परि धापयामः) हम ढकते हैं, (यः) जो [परमेश्वर] (देवानाम्) विद्वानों का (अधिराजः) अधिराजा (बभूव) हुआ है। (पुनः) फिर (त्वा) तुझको (सर्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (प्र णयन्तु) आगे ले चलें, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥४॥
भावार्थभाषाः - माता-पिता आदि सन्तानों को ऐसी उत्तम शिक्षा देवें, जिससे वे सत्य नियम पर चलकर विद्वानों के अगुआ होवें ॥४॥
टिप्पणी: ४−(इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमात्मनः (त्वा) (वर्मणा) कवचेन (परि) सर्वतः (धापयामः) आवृण्मः (यः) (देवानाम्) विदुषाम् (अधिराजः) टच् समासान्तः। अधिपतिः (बभूव) (पुनः) अनन्तरम् (त्वा) (देवाः) विद्वांसः (प्र) अग्रे (नयन्तु) गमयन्तु (सर्वे) समस्ताः। अन्यत् पूर्ववत् ॥