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देवता: वरुणः ऋषि: भृगुः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: भैषज्य सूक्त

यदा॑पो अ॒घ्न्या इति॒ वरु॒णेति॒ यदू॑चि॒म। तस्मा॑त्सहस्रवीर्य मु॒ञ्च नः॒ पर्यंह॑सः ॥

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पद पाठ

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:44» पर्यायः:0» मन्त्र:9


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) क्योंकि (आपः) प्राण और (अघ्न्याः) न मारने योग्य गौएँ हैं, (इति) इसलिये, (वरुण) हे वरुण ! [सर्वश्रेष्ठ परमात्मन्] (इति) इसलिये, (यत्) जो कुछ [असत्य] (ऊचिम) हमने बोला है। (सहस्रवीर्य) हे सहस्रप्रकार के पराक्रमवाले ! [ईश्वर] (तस्मात्) उस (अंहसः) पाप से (नः) हमें (परि) सर्वथा (मुञ्च) छुड़ा ॥९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपने प्राणों, गौओं और परमात्मा का शपथ करके कभी असत्य न बोलें और न कभी पाप करें ॥९॥
टिप्पणी: इस मन्त्र का पहिला भाग आ चुका है-अ०७।८३।२, और कुछ भेद से यजुर्वेद में है-२०।१८॥९−(यत्) यस्मात् (आपः) प्राणाः (अघ्न्याः) अहन्तव्या गावः (इति) अनेन प्रकारेण (वरुण) हे सर्वोत्कृष्ट (इति) एवम् (यत्) अनृतम् (ऊचिम) वयं कथितवन्तः। अन्यत् पूर्ववत् ॥