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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (रक्षोहा) राक्षसों का मारनेवाला, (अमीवचातनः) रोगनाशक [परमात्मा] (इदम्) इस (मध्यम्) मध्यस्थान में (वि अव असृपत्) सरक आया है। (इतः) यहाँ से (सर्वाः) सब (अमीवाः) पीड़ाओं को (चातयत्) हटाता हुआ, और (अभिभाः) विपत्तियों को (नाशयत्) नाश करता हुआ [ब्रह्म वर्तमान है] ॥७॥
भावार्थभाषाः - सर्वव्यापक परमात्मा को साक्षात् करके मनुष्य सब विघ्नों को हटावे ॥७॥
टिप्पणी: ७−(वि) विविधम् (इदम्) दृश्यमानम् (मध्यम्) मध्यस्थानम् (अव असृपत्) सर्पणेन व्याप्तवान् (रक्षोहा) राक्षसानां हन्ता (अमीवचातनः) रोगनाशकः परमात्मा (अमीवाः) रोगान् (सर्वाः) (चातयत्) नाशयत् (नाशयत्) दूरीकुर्वत् (अभिभाः) अ०११।२।११। विपत्तीः (इतः) अस्मात् स्थानात् ॥