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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (जातम्) प्रसिद्ध, (भद्रम्) कल्याणकारक, (पुरुषजीवनम्) पुरुषों का जीवन (आञ्जनम्) आञ्जन [संसार का प्रकट करनेवाला ब्रह्म, वा लेपविशेष] [मुझको] (अप्रमायुकम्) मृत्युरहित, (रथजूतिम्) रथ [शरीर] का वेग रखनेवाला, और (अनागसम्) निर्दोष (कृणोतु) करे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा पृथिवी आदि में प्रसिद्ध है, उसकी भक्ति से मनुष्य मोक्षसुख पाकर अपने शरीर और आत्मा को वेगवान् करके शुद्ध निष्पाप रहें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(आञ्जनम्) म०१। संसारस्य व्यक्तिकारकं ब्रह्म। प्रलेपविशेषः (पृथिव्याम्) भूमौ (जातम्) प्रसिद्धम् (भद्रम्) कल्याणकरम् (पुरुषजीवनम्) पुरुषाणां जीवयितृ (कृणोतु) करोतु-मामिति शेषः (अप्रमायुकम्) पचिनशोर्णुकन्कनुमौ च। उ०२।३०। मीञ् हिंसायां मरणे च-णुकन्। मृत्युरहितम् (रथजूतिम्) रथस्य शरीरस्य जूतिर्वेगो यस्मात्तम् (अनागसम्) निर्दोषम् ॥