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अं॒हो॒मुचं॑ वृष॒भं य॒ज्ञिया॑नां वि॒राज॑न्तं प्रथ॒मम॑ध्व॒राण॑म्। अ॒पां नपा॑तम॒श्विना॑ हुवे॒ धिय॑ इन्द्रि॒येण॑ त इन्द्रि॒यं द॑त्त॒मोजः॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अंहःऽमुचम्। वृषभम्। यज्ञियानाम्। विऽराजन्तम्। प्रथमम्। अध्वराणाम्। अपाम्। नपातम्। अश्विना। हुवे। धियः। इन्द्रियेण। ते । इन्द्रियम्। दत्तम्। ओजः ॥४२.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:42» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

वेद की स्तुति का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (अंहोमुचम्) कष्ट से छुड़ाने हारे, (यज्ञियानाम्) पूजा योग्यों में (वृषभम्) श्रेष्ठ, (अध्वराणाम्) हिंसारहित यज्ञों के (विराजन्तम्) विशेष शोभायमान (प्रथमम्) मुख्य, (अपाम्) प्रजाओं के (नपातम्) न गिरानेवाले [बड़े रक्षक, परमात्मा] को (हुवे) मैं बुलाता हूँ। [हे उपासक !] (अश्विना) व्यवहारों में व्यापक माता-पिता दोनों (इन्द्रियेण) परम ऐश्वर्यवान् पुरुष के पराक्रम से (ते) तुझको (धियः) बुद्धियाँ, (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य और (ओजः) पराक्रम (दत्तम्=दत्ताम्) देवें ॥४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य माता-पिता आचार्य आदि की शिक्षा से बुद्धिमान् ऐश्वर्यवान् और पराक्रमी होकर परमात्मा की भक्ति करके उन्नति करें ॥४॥
टिप्पणी: ४−(अंहोमुचम्) पापाद् मोचयितारम् (वृषभम्) श्रेष्ठम् (यज्ञियानाम्) पूजनीयानाम् (विराजन्तम्) विशेषेण शोभायमानम् (प्रथमम्) मुख्यम् (अध्वराणाम्) हिंसारहितानां यज्ञानाम् (अपाम्) प्रजानाम् (नपातम्) न पातयितारम्। महारक्षकम् (अश्विना) हे कर्मसु व्यापकौ मातापितरौ (हुवे) आह्वयामि (धियः) बुद्धीः (इन्द्रियेण) इन्द्रयोग्यपराक्रमेण (ते) तुभ्यम् (इन्द्रियम्) परमैश्वर्यम् (दत्तम्) दत्ताम्। प्रयच्छताम् (ओजः) पराक्रमम् ॥