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यत्र॒ नाव॑प्र॒भ्रंश॑नं॒ यत्र॑ हि॒मव॑तः॒ शिरः॑। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं॒ ततः॒ कुष्ठो॑ अजायत। स कु॑ष्ठो वि॒श्वभे॑षजः सा॒कं सोमे॑न तिष्ठति। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्र। न। अवऽप्रभ्रंशनम्। यत्र। हिमऽवतः। शिरः। तत्र। अमृतस्य। चक्षणम्। ततः। कुष्ठः। अजायत। सः। कुष्ठः। विश्वऽभेषजः। साकम्। सोमेन। तिष्ठति। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥३९.८॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:39» पर्यायः:0» मन्त्र:8


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रोगनाश करने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जहाँ (अवप्रभ्रंशनम्) नीचे गिर जाना (न) नहीं है, और (यत्र) जहाँ (हिमवतः) हिमवाले स्थान का (शिरः) शिर है। (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत [अमरपन] का (चक्षणम्) दर्शन है, (ततः) उससे (कुष्ठः) कुष्ठ [मन्त्र १] (अजायत) प्रकट हुआ है। (सः) वह (विश्वभेषजः) सर्वौषध (कुष्ठः) कुष्ठ...... [मन्त्र ५] ॥८॥
भावार्थभाषाः - हिम पृथिवी से ऊँचे स्थान पर गिरता है जहाँ पर जो मार्ग में बिना फिसले ऊँचा चढ़ जाता है, वहाँ वह कुष्ठ महौषध को पाकर प्रसन्न होता है ॥८॥
टिप्पणी: ८−(यत्र) यस्मिन् स्थाने (न) निषेधे (अवप्रभ्रंशनम्) भ्रंशु अधःपतने इतस्ततोऽधःपतनम् (यत्र) (हिमवतः) हिमयुक्तदेशस्य (शिरः) शिखरम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥