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हि॑र॒ण्ययी॒ नौर॑चर॒द्धिर॑ण्यबन्धना दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं॒ ततः॒ कुष्ठो॑ अजायत। स कुष्ठो॑ वि॒श्वभे॑षजः सा॒कं सोमे॑न तिष्ठति। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हिरण्ययी। नौः। अचरत्। हिरण्यऽबन्धना। दिवि। तत्र। अमृतस्य। चक्षणम्। ततः। कुष्ठः। अजायत। सः। कुष्ठः। विश्वऽभेषजः। साकम्। सोमेन। तिष्ठति। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥३९.७॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:39» पर्यायः:0» मन्त्र:7


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रोगनाश करने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्ययी) तेजवाली [अग्नि वा बिजुली वा सूर्य से चलनेवाली], (हिरण्यबन्धना) तेजोमय बन्धनोंवाली (नौः) नाव (दिवि) व्यवहार में (अचरत्) चलती थी। (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत [अमरपन] का (चक्षणम्) दर्शन है, (ततः) उससे (कुष्ठः) कुष्ठ [मन्त्र १] (अजायत) प्रकट हुआ है। (सः) वह (विश्वभेषजः) सर्वौषध (कुष्ठः) कुष्ठ...... [म०५] ॥७॥
भावार्थभाषाः - जहाँ पर विद्वान् लोग विज्ञान प्राप्त करके नाव आदि यानों को अग्नि आदि से चलाते हैं, वहाँ कुष्ठ महौषधि बड़ा उपकारी होता है ॥७॥
टिप्पणी: इस मन्त्र के पहिले दो भाग कुछ भेद से आ चुके हैं-अ०५।४।४। तथा ६।९५।२॥७−(हिरण्ययी) हिरण्यमयी। तेजोमयी। अग्निना विद्युता सूर्येण वा प्रयुक्ता (नौः) तरणिः (अचरत्) अगमत् (हिरण्यबन्धना) तेजोमयबन्धनयुक्ता। अन्यत् पूर्ववत्-म०६॥