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अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं॒ ततः॒ कुष्ठो॑ अजायत। स कुष्ठो॑ वि॒श्वभे॑षजः सा॒कं सोमे॑न तिष्ठति। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्वत्थः। देवऽसदनः। तृतीयस्याम्। इतः। दिवि। तत्र। अमृतस्य। चक्षणम्। ततः। कुष्ठः। अजायत। सः। कुष्ठः। विश्वऽभेषजः। साकम्। सोमेन। तिष्ठति। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥३९.६॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:39» पर्यायः:0» मन्त्र:6


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रोगनाश करने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवसदनः) विद्वानों के बैठने योग्य (अश्वत्थः) वीरों के ठहरने का देश (तृतीयस्याम्) तीसरी [निकृष्ट और मध्य अवस्था से परे, श्रेष्ठ] (दिवि) अवस्था में (इतः) प्राप्त होता है। (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत [अमरपन] का (चक्षणम्) दर्शन है, (ततः) उससे (कुष्ठः) कुष्ठ [मन्त्र १] (अजायत) प्रकट हुआ है। (सः) वह (विश्वभेषजः) सर्वौषध (कुष्ठः) कुष्ठ..... [म०५] ॥६॥
भावार्थभाषाः - जहाँ पर विद्वान् वीरों का निवास होता है, वहाँ कुष्ठ महौषध के उपयोग से आनन्द बढ़ता है ॥६॥
टिप्पणी: इस मन्त्र के पहिले दो भाग कुछ भेद से आचुके हैं-अ०५।४।३। और ६।९५।१॥६−(अश्वत्थः-अजायत) इति व्याख्यातः-अ०५।४।३ तथा ६।९५।१, पुनरपि शब्दार्थः क्रियते (अश्वत्थः) अ०३।६।१। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः (देवसदनः) महात्मनां स्थितियोग्यः (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां तृतीयस्यां श्रेष्ठायाम् (इतः) इण् गतौ-क्त। प्राप्तः (दिवि) गतौ। अवस्थायाम् (तत्र) तस्मिन् स्थाने (अमृतस्य) अमरणस्य। चिरजीवनस्य (चक्षणम्) दर्शनम् (ततः) तस्मात् स्थानात् (कुष्ठः) म०१। औषधविशेषः (अजायत) प्रादुरभवत्। अन्यत् पूर्ववत्-म०५॥