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शी॑र्षलो॒कं तृती॑यकं सद॒न्दिर्यश्च॑ हाय॒नः। त॒क्मानं॑ विश्वधावीर्याध॒राञ्चं॒ परा॑ सुव ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शीर्षऽलोकम्। तृतीयकम्। सदम्ऽदिः। यः। च। हायनः। तक्मानम्। विश्वधाऽवीर्य। अधराञ्चम्। परा। सुव ॥३९.१०॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:39» पर्यायः:0» मन्त्र:10


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रोगनाश करने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (शीर्षलोकम्) शिर में स्थानवाले [शिर में पीड़ा करनेवाले], (तृतीयकम्) तिजारी, और (यः) जो (सदन्दिः) सदा फूटन करनेवाला (च) और (हायनः) प्रतिवर्ष होनेवाला [ज्वर] है। (विश्वधावीर्य) हे सब प्रकार सामर्थ्यवाले [कुष्ठ !] (तक्मानम्) उस दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (अधराञ्चम्) नीचे स्थान में (परा सुव) दूर गिरादे ॥१०॥
भावार्थभाषाः - कुष्ठ महौषध के सेवन से सब प्रकार के ज्वर नष्ट होते हैं ॥१०॥
टिप्पणी: इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध आ चुका है-अ०५।२२।३॥१०−(शीर्षलोकम्) शिरसि स्थानयुक्तम्। मस्तकपीडकम् (तृतीयकम्) अ०१।२५।४। स्वार्थे कन्। तृतीयदिने आगच्छन्तम् (सदन्दिः) अ०५।२२।१३। सदम्+दाप् छेदने दो अवखण्डने वा-कि। सदा खण्डकम्। पीडकम् (यः) (च) (हायनः) अ०६।१४।३। हायन-अर्शआद्यच्। प्रतिवर्षभवः (तक्मानम्) कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (विश्वधावीर्य) हे सर्वथा सामर्थ्योपेत (अधराञ्चम्) अ०५।२२।३। निम्नदेशम् (परा) दूरे (सुव) प्रेरय ॥