वर्च॒ आ धे॑हि मे त॒न्वां सह॒ ओजो॒ वयो॒ बल॑म्। इ॑न्द्रि॒याय॑ त्वा॒ कर्म॑णे वी॒र्याय॒ प्रति॑ गृह्णामि श॒तशा॑रदाय ॥
पद पाठ
वर्चः। आ। धेहि। मे। तन्वाम्। सहः। ओजः। वयः। बलम्। इन्द्रियाय। त्वा। कर्मणे। वीर्याय। प्रति। गृह्णामि। शतऽशारदाय ॥३७.२॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:37» पर्यायः:0» मन्त्र:2
बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
बल की प्राप्ति का उपदेश ॥
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (मे) मेरे (तन्वाम्) शरीर में (वर्चः) प्रताप, (सहः) उत्साह, (ओजः) पराक्रम, (वयः) पौरुष और (बलम्) बल (आ धेहि) धारण कर दे। (इन्द्रियाय) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् पुरुष] के योग्य (कर्मणे) कर्म के लिये, (वीर्याय) वीरता के लिये और (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले [जीवन] के लिये (त्वा) तुझको (प्रति गृह्णामि) मैं अङ्गीकार करता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्या की प्राप्ति से परमेश्वरीय नियमों पर चलकर अपना यश बढ़ावें ॥२॥
टिप्पणी: २−(वर्चः) प्रतापम् (आ) समन्तात् (धेहि) देहि (मे) मम (तन्वाम्) शरीरे (सहः) उत्साहम् (ओजः) पराक्रमम् (वयः) पौरुषम् (बलम्) सामर्थ्यम् (इन्द्रियाय) इन्द्रस्य परमैश्वर्यवतः पुरुषस्य योग्याय (त्वा) त्वाम् (कर्मणे) (वीर्याय) वीरत्वाय (प्रतिगृह्णामि) स्वीकरोमि (शतशारदाय) शतशरदृतुयुक्ताय जीवनाय ॥