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उ॒ग्र इत्ते॑ वनस्पत॒ इन्द्र॑ ओ॒ज्मान॒मा द॑धौ। अमी॑वाः॒ सर्वा॑श्चा॒तयं॑ ज॒हि रक्षां॑स्योषधे ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उग्रः। इत्। ते। वनस्पते। इन्द्रः। ओज्मानम्। आ। दधौ। अमीवाः। सर्वाः। चातयन्। जहि। रक्षांसि। ओषधे ॥३४.९॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:34» पर्यायः:0» मन्त्र:9


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सबकी रक्षा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पते) हे वनस्पति ! [सेवा करनेवालों के रक्षक] (ते) तुझको (उग्रः) उग्र (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] ने (इत्) ही (ओज्मानम्) बल (आ) सब ओर से (दधौ) दिया है। (ओषधे) हे ओषधि ! (सर्वाः) सब (अमीवाः) पीड़ाओं को (चातयन्) नाश करता हुआ तू (रक्षांसि) [रोग-जन्तुओं] को (जहि) मार ॥९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जङ्गिड औषध के सेवन से सब रोगों को नाश करके रोग-जन्तुओं का भी नाश करें ॥९॥
टिप्पणी: ९−(उग्रः) प्रचण्डः (ते) तुभ्यम् (वनस्पते) हे वनानां सेवकानां रक्षक (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (ओज्मानम्) उब्ज आर्जवे-मनिन्, बलोपः, यद्वा ओज बले-मनिन्। सामर्थ्यम् (आ) समन्तात् (दधौ) ददौ (अमीवाः) पीडाः (सर्वाः) (चातयन्) नाशयन् (जहि) मारय (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगजन्तून् (ओषधे) ॥