त्रिष्ट्वा॑ दे॒वा अ॑जनय॒न्निष्ठि॑तं॒ भूम्या॒मधि॑। तमु॒ त्वाङ्गि॑रा॒ इति॑ ब्राह्म॒णाः पू॒र्व्या वि॑दुः ॥
पद पाठ
त्रिः। त्वा। देवाः। अजनयन्। निऽस्थितम्। भूम्याम्। अधि। तम्। ऊं इति। त्वा। अङ्गिराः। इति। ब्राह्मणाः। पूर्व्याः। विदुः ॥३४.६॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:34» पर्यायः:0» मन्त्र:6
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सबकी रक्षा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे औषध !] (देवाः) विद्वानों ने (भूम्याम्) भूमि में (अधि) भले प्रकार (निष्ठितम्) जमे हुए (त्वा) तुझको (त्रिः) तीन बार [जोतने, बोने और सींचने से] (अजनयन्) उत्पन्न किया है। (उ) और (पूर्व्याः) प्राचीन (ब्राह्मणाः) विद्वान् वैद्य लोग (तम् त्वा) उस तुझको (विदुः) जानते हैं−(अङ्गिराः इति) कि यह अङ्गिरा [बड़ा व्यापनशील] है ॥६॥
भावार्थभाषाः - बड़े-बड़े वैद्य लोग जङ्गिड औषध के प्रभाव को सदा से जानते और उसकी प्राप्ति का उपाय करते रहे हैं ॥६॥
टिप्पणी: ६−(त्रिः) त्रिवारम्। कर्षणवपनसेचनेन (त्वा) त्वाम् (देवाः) विद्वांसः (अजनयन्) उत्पादयन् (निष्ठितम्) दृढं स्थितम् (भूम्याम्) पृथिव्याम् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (तम्) तादृशम् (उ) च (त्वा) त्वाम् (अङ्गिराः) अ०२।१२।४। अङ्गतेरसिरिराडागमश्च। उ०४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमः। व्यापनशीलः (इति) वाक्यपूरणः (ब्राह्मणाः) विद्वांसो वैद्याः (पूर्व्याः) पूर्वजाः (विदुः) जानन्ति ॥