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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सबकी रक्षा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अरसम्) नीरस [निष्प्रभाव], (कृत्रिमम्) बनावटी (नादम्) ध्वनि को, और (अरसाः) नीरस [निष्प्रभाव] (सप्त) सात [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख में भी] (विस्रसः) विचल करनेवाली [निर्बलतओं] को और (अमतिम्) दुर्बुद्धि को (इतः) इस [रोगी] से, (जङ्गिडः) हे जङ्गिड ! [संचार करनेवाले औषध] (अस्ता इव) धनुर्धारी के समान (इषुम्) बाण को (अप शातय) दूर गिरा दे ॥३॥
भावार्थभाषाः - रोग के कारण से जो शब्द में, इन्द्रियों में और बुद्धि में विकार हो जाता है, वह जङ्गिड ओषधि के सेवन से अच्छा होता है ॥३॥
टिप्पणी: ३−(अरसम्) निष्प्रभावम् (कृत्रिमम्) क्रियया निर्वृत्तम् (नादम्) ध्वनिम् (अरसाः) निष्प्रभावः (सप्त) सप्तसंख्याकाः। शीर्षण्यसप्तगोलकसम्बन्धिनीः (विस्रसः) स्रसेः क्विप्। विचालनशीला निर्बलताः (अप) दूरे (इतः) अस्मात्। रुग्णात् (जङ्गिडः) म०१। हे संचारकौषध (अमतिम्) दुर्बुद्धिम् (इषुम्) बाणम् (अस्ता) इषुक्षेप्ता (इव) यथा (शातय) शद्लृ शातने-णिचि लोट्। नाशय। अपगमय ॥