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देवता: दर्भः ऋषि: भृगुः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: दर्भ सूक्त

नास्य॒ केशा॒न्प्र व॑पन्ति॒ नोर॑सि ताड॒मा घ्न॑ते। यस्मा॑ अच्छिन्नप॒र्णेन॑ द॒र्भेन॒ शर्म॒ यच्छ॑ति ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। अस्य। केशान्। प्र। वपन्ति। न। उरसि। ताडम्। आ। घ्नते। यस्मै। अच्छिन्नऽपर्णेन। दर्भेण। शर्म। यच्छति ॥३२.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:32» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

शत्रुओं के हराने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (न) न तो (अस्य) उस [पुरुष] के (केशान्) केशों को (प्र वपन्ति) वे [शत्रु लोग] बखेरते हैं, (न) न (उरसि) छाती पर (ताडम्) चोट (आ घ्नते) लगाते हैं (यस्मै) जिस [पुरुष] को (अच्छिन्नपर्णेन) अखण्ड पालनवाले (दर्भेण) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर] के साथ (शर्म) सुख (यच्छति) वह [कोई मित्र] देता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य माता-पिता आचार्य आदि से सुशिक्षा पाकर परमात्मा में दृढ़ होकर उत्साह करता है, उसको संसार में कोई नहीं सता सकता ॥२॥
टिप्पणी: २−(न) नैव (अस्य) तस्य पुरुषस्य (केशान्) शिरोरुहान् (प्र) प्रकर्षेण (वपन्ति) डुवप बीजसन्ताने, विक्षिपन्ति। विकिरन्ति (न) निषेधे (उरसि) वक्षःस्थले (ताडम्) आघातम् (आ) समन्तात् (घ्नते) मारयन्ति (यस्मै) पुरुषाय (अच्छिन्नपर्णेन) अखण्डितपालनेन (दर्भेण) शत्रुविनाशकेन परमेश्वरेण (सह) (शर्म) सुखम् (यच्छति) ददाति कश्चित् सुहृत् ॥