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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (दर्भ) हे दर्भ ! [शत्रुविदारक सेनापति] (ते=त्वाम्) तुझको (सपत्नक्षयणम्) वैरियों का नाश करनेवाला, (द्विषतः) शत्रु के (हृदः) हृदय का (तपनम्) तपानेवाला, (क्षत्रस्य) राज्य का (मणिम्) श्रेष्ठ (वर्धनम्) बढ़ानेवाला और (तनूपानम्) शरीरों की रक्षा करनेवाला (कृणोमि) मैं बनाता हूँ ॥४॥
भावार्थभाषाः - शूर प्रतापी सेनापति को अधिकार दिया जावे कि वह शत्रु के जीतने और राज्य की उन्नति करने में सदा प्रयत्न करे ॥४॥
टिप्पणी: ४−(सपत्नक्षयणम्) शत्रूणां नाशकम् (दर्भ) हे शत्रुविदारक सेनापते (द्विषतः) वैरिणः (तपनम्) तापकम् (हृदः) हृदयस्य (मणिम्) प्रशंसनीयम् (क्षत्रस्य) राज्यस्य (वर्धनम्) वर्धकम् (तनूपानम्) शरीराणां पातारं रक्षितारम् (कृणोमि) करोमि (ते) त्वामित्यर्थः ॥