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दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षा॒द्वन॒स्पति॑भ्यो॒ अध्योष॑धीभ्यः। यत्र॑यत्र॒ विभृ॑तो जा॒तवे॑दा॒स्तत॑ स्तु॒तो जु॒षमा॑णो न॒ एहि॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दिवः। पृथिव्याः। परि। अन्तरिक्षात्। वनस्पतिऽभ्यः। अधि। ओषधीभ्यः। यत्रऽयत्र। विऽभृतः। जातऽवेदाः। ततः। स्तुतः। जुषमाणः। नः। आ। इहि ॥३.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:3» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

अग्नि के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (दिवः) सूर्य से, (पृथिव्याः) पृथिवी से, (अन्तरिक्षात् परि) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] में से, (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों [पीपल आदि वृक्षों] से और (ओषधीभ्यः अधि) ओषधियों [अन्न सोमलता आदिकों] में से, और (यत्रयत्र) जहाँ-जहाँ (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान तू [अग्नि] (विभृतः) विशेष करके धारण किया गया है, (ततः) वहाँ से (स्तुतः) स्तुति किया गया [काम में लाया गया] और (जुषमाणः) प्रसन्न करता हुआ तू (नः) हमको (आ) आकर (इहि) प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य अग्नि, बिजुली, धूप आदि को सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष, वनस्पतियों, ओषधियों अन्य पदार्थों से ग्रहण करके शरीर की पुष्टि और शिल्पविद्या की उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी: इस मन्त्र का प्रथम पाद आया है-अ० ९।१।१ ॥ १−(दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (परि) सकाशात् (अन्तरिक्षात्) मध्यलोकात् (वनस्पतिभ्यः) पिप्पलादिवृक्षेभ्यः (अधि) सकाशात् (ओषधीभ्यः) अन्नसोमलतादिपदार्थेभ्यः (यत्रयत्र) यस्मिन् यस्मिन् पदार्थे स्थाने वा (विभृतः) विशेषेण धृतः पूर्णः (जातवेदाः) जातेषूत्पन्नेषु वेदो विद्यमानता यस्य सः (ततः) तस्मात् (स्तुतः) प्रशंसितः। प्रयुक्तः (जुषमाणः) जुषी प्रीतिसेवनयोः−शानच्। प्रीणयन् (नः) अस्मान् (आ) आगत्य (इहि) प्राप्नुहि ॥