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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आशीर्वाद देने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वानो ! (ये) जो तुम (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (एकादश) ग्यारह [श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, नासिका, वाणी, हाथ, पाँव, गुदा, लिङ्ग और मन−इन ग्यारह के समान] (स्थ) हो, (देवासः) हे विद्वानो ! (ते) वे तुम (इदम्) इस (हविः) ग्रहणयोग्य वस्तु [वचन] को (जुषध्वम्) सेवन करो ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्यादि लोकों में सब पदार्थ स्थित रहकर अपना-अपना कर्तव्य कर रहे हैं, वैसे ही मनुष्यों को ईश्वर और वेद में दृढ़ रहकर अपने कर्तव्य में परम निष्ठा रखनी चाहिये ॥११-१३॥
टिप्पणी: मन्त्र ११-१३ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-१।१३९।-११ और यजुर्वेद ७।१९॥१२−(अन्तरिक्षे) मध्यलोके (एकादश) यजु०७।१९। श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनाघ्राणवाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसि-इत्येभिः समानाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥