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यद्धिर॑ण्यं॒ सूर्ये॑ण सु॒वर्णं॑ प्र॒जाव॑न्तो॒ मन॑वः॒ पूर्व॑ ईषि॒रे। तत्त्वा॑ च॒न्द्रं वर्च॑सा॒ सं सृ॑ज॒त्यायु॑ष्मान्भवति॒ यो बि॒भर्ति॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। हिरण्यम्। सूर्येण। सुऽवर्णम्। प्रजाऽवन्तः। मनवः। पूर्वे। ईषिरे। तत् । त्वा। चन्द्रम्। वर्चसा। सम्। सृजति। आयुष्मान्। भवति। यः। बिभर्ति ॥२६.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:26» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्येण) सूर्य द्वारा (सुवर्णम्) सुन्दर रूपवाले (यत्) जिस (हिरण्यम्) कामनायोग्य सोने को (प्रजावन्तः) श्रेष्ठ प्रजाओंवाले (पूर्वे) पहिले (मनवः) (विचारशील) मनुष्यों ने (ईषिरे) पाया था। (तत्) वह (चन्द्रम्) आनन्ददायक सोना (वर्चसा) तेज के साथ (त्वा) तुझसे (संसृजति) संयोग करता है, वह (आयुष्मान्) उत्तम जीवनवाला (भवति) होता है, (यः) जो पुरुष [सोना] (बिभर्ति) रखता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - यह जो सोना सूर्य की किरणों द्वारा पृथिवी में उत्पन्न होता है, उसको विद्वानों ने अपने श्रेष्ठ पुत्रादि प्रजाओं के साथ प्रयत्न करके पाया है, वैसे ही सब मनुष्य पुरुषार्थ करके सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति से सुखी होवें ॥२॥
टिप्पणी: २−(यत्) (हिरण्यम्) म०१। कमनीयं सुवर्णम् (सूर्येण) सूर्यकिरणद्वारा (सुवर्णम्) शोभनरूपम् (प्रजावन्तः) श्रेष्ठपुत्रादिप्रजायुक्ताः (मनवः) मननशीला मनुष्याः (पूर्वे) पूर्वजाः (ईषिरे) ईष गतौ-लिट्। प्राप्तवन्तः। (तत्) (त्वा) त्वाम् (चन्द्रम्) आह्लादकं सुवर्णम् (वर्चसा) तेजसा (सं सृजति) संयोजयति (आयुष्मान्) प्रशस्तजीवनयुक्तः (भवति) (यः) पुरुषः (बिभर्त्ति) धारयति हिरण्यम् ॥