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देवता: वाजी ऋषि: गोपथः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: अश्व सूक्त

अश्रा॑न्तस्य त्वा॒ मन॑सा यु॒नज्मि॑ प्रथ॒मस्य॑ च। उत्कू॑लमुद्व॒हो भ॑वो॒दुह्य॒ प्रति॑ धावतात् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्रान्तस्य। त्वा। मनसा। युनज्म‍ि। प्रथमस्य। च। उत्ऽकूलम्। उत्ऽवहः। भव। उत्ऽउह्य। प्रति। धावतात् ॥२५.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:25» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

शूरों के लक्षण का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे शूर !] (अश्रान्तस्य) अनथके (च) और (प्रथमस्य) पहिले पदवाले पुरुष के (मनसा) मन से (त्वा) तुझको (युनज्मि) मैं संयुक्त करता हूँ। (उत्कूलम्) ऊँचे तट की ओर चलकर (उद्वह) ऊँचा ले चलनेवाला (भव) हो, और [मनुष्यों को] (उदुह्य) ऊँचे ले जाकर (प्रति) प्रतीति से (धावतात्) दौड़ ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर आज्ञा देता है कि हे मनुष्य तू निरालसी नेता पुरुषों के समान पुरुषार्थ कर, और जैसे चतुर नाविक सावधानी से धार को काटता हुआ बलप्रवाह के ऊपर की ओर यात्रियों को ठिकाने पर उतारता है, वैसे ही पराक्रमी पुरुष सबको कठिनाई से निकालकर सुख पहुँचावे ॥१॥
टिप्पणी: १−(अश्रान्तस्य) श्रमरहितस्य (त्वा) त्वां पुरुषार्थिनम् (मनसा) अन्तःकरणेन। मननेन (युनज्मि) संयोजयामि (प्रथमस्य) प्रधानपदस्थस्य (च) (उत्कूलम्) यथा भवति तथा। ऊर्ध्वतटं प्रति गत्वा (उद्वहः) उद्वहति ऊर्ध्वं नयतीति, वह प्रापणे-अच्। उन्नेता। प्रधानः (भव) (उदुह्य) उन्नीय मनुष्यान् (प्रति) प्रतीत्या (धावतात्) धावं। शीघ्रं गच्छ ॥