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परी॒दं वासो॑ अधिथाः स्व॒स्तयेऽभू॑र्वापी॒नाम॑भिशस्ति॒पा उ॑। श॒तं च॒ जीव॑ श॒रदः॑ पुरू॒चीर्वसू॑नि॒ चारु॒र्वि भ॑जासि॒ जीव॑न् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि। इदम् । वासः। अधिथाः। स्वस्तये। अभूः। वापीनाम्। अभिशस्तिऽपाः। ऊं इति। शतम्। च। जीव। शरदः। पुरूचीः। वसूनि। चारुः। वि। भजासि। जीवन् ॥२४.६॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:24» पर्यायः:0» मन्त्र:6


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (इदम्) इस (वासः) वस्त्र को (स्वस्तये) आनन्द बढ़ाने के लिये (परि अधिथाः) तूने धारण किया है, (उ) और (वापीनाम्) बोने की भूमियों [खेती आदि अथवा बावड़ी, कूप आदि] का (अभिशस्तिपाः) खण्डन से बचानेवाला (अभूः) तू हुआ है। (च) और (पुरूचीः) बहुत पदार्थों से व्याप्त (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीव) तू जीवित रह और (चारुः) शोभायमान होकर (जीवन्) जीता हुआ तू (वसूनि) धनों को (वि भजासि) बाँटता रह ॥६॥
भावार्थभाषाः - राजा शासनपद ग्रहण करके सबकी भलाई का प्रयत्न करता हुआ प्रजा को धनी बनाकर कीर्तिमान् होवे ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ०२।१३।३॥
टिप्पणी: ६−(इदम्) उपस्थितम् (वासः) वस्त्रम् (परि अधिथाः) आच्छादितवानसि (स्वस्तये) आनन्दवर्धनाय (अभूः) (वापीनाम्) वसिवपियजि०।उ०४।१२५। डुवप बीजतन्तुसन्ताने-इञ् प्रत्ययः। वपन्ति बीजं विस्तारयन्ति यत्र तासां भूमीनाम्। कूपादिजलाशयभेदानाम् (अभिशस्तिपाः) खण्डनाद् रक्षकः (वसूनि) धनानि (चारुः) शोभनः (वि भजासि) भजतेर्लेटि आडागमः। विभक्तान् कुरु (जीवन्) प्राणान् धारयन्। अन्यत् पूर्ववत्-म०५॥