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अ॒पामह॑ दि॒व्याना॑म॒पां स्रो॑त॒स्यानाम्। अ॒पामह॑ प्र॒णेज॒नेऽश्वा॑ भवथ वा॒जिनः॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अपाम्। अह। दिव्यानाम्।अपाम्। स्रोतस्यानाम्। अपाम्। अह। प्रऽनेजने। अश्वाः। भवथ। वाजिनः ॥२.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:2» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

जल के उपकार का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (अह) निश्चय करके (दिव्यानाम्) आकाश से बरसनेवाले (अपाम्) जलों के और (स्रोतस्यानाम्) स्रोतों से निकलनेवाले (अपाम्) फैलते हुए (अपाम्) जलों के (प्रणेजने) पोषण सामर्थ्य में, (अह) निश्चय करके तुम (वाजिनः) वेगवाले (अश्वाः) बलवान् पुरुष [वा घोड़ों के समान] (भवथ) हो जाओ ॥४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य वृष्टि के और नदी कूप आदि के जल की यथावत् चिकित्सा से शरीर में नीरोग, और खेती आदि में उसके प्रयोग से अन्न आदि प्राप्त करके बड़े वेगवान् और बलवान् होवें ॥४॥
टिप्पणी: इस मन्त्र का चौथा पाद आया है-अ० १।४।४ ॥ ४−(अपाम्) व्यापनशीलानां जलानाम् (अह) विनिग्रहे। निश्चयेन (दिव्यानाम्) दिवि आकाशे, भवानाम् (अपाम्) व्यापनशीलानाम् (स्रोतस्यानाम्) स्रोतम्−यत्। स्रोतःसु प्रवाहेषु भवानाम् (अपाम्) जलानाम् (अह) (प्रणेजने) णिजिर् शौचपोषणयोः−ल्युट्। शोधने। पोषणे (अश्वाः) बलवन्तः पुरुषाः। तुरगा इव बलवन्तः (भवथ) थनादेशः। भवत (वाजिनः) वेगवन्तः ॥