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स्व॑धापि॒तृभ्यो॑ अन्तरिक्ष॒सद्भ्यः॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वधा । पितृऽभ्य: । अन्तर‍िक्षसत्ऽभ्य: ॥४.७९॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:4» पर्यायः:0» मन्त्र:79


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

पितरों के सन्मान का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (अन्तरिक्षसद्भ्यः)प्रकाशविद्या में गतिवाले (पितृभ्यः) पितरों [पालक ज्ञानियों] को (स्वधा) अन्नहो ॥७९॥
भावार्थभाषाः - जो पितर पण्डित लोगपृथिवी अर्थात् राज्यविद्या, भूगर्भविद्या आदि में चतुर हों, जो ज्योतिषी आकाशविद्या अर्थात् सौरमण्डल, तारामण्डल, वायुमण्डल आदि विद्या में दक्ष हों और जोमहापुरुष अन्य व्यवहारों अर्थात् संग्रामविद्या, धर्मशिक्षा आदि विद्या मेंगुणी होवें, सब मनुष्य ऐसे महात्माओं का सदा आदर करते रहें॥७८-८०॥
टिप्पणी: ७९−(अन्तरिक्षसद्भ्यः)आकाशविद्यायां गतिशीलेभ्यः। अन्यत् पूर्ववत् ॥