उदु॑त्त॒मंव॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मं श्र॑थाय। अधा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते तवाना॑गसो॒ अदि॑तयेस्याम ॥
पद पाठ
उत् । उत्ऽतमम् । वरुण । पाशम् । अस्मत् । अव । अधमम् । वि । मध्यमम् । श्रथय । अध । वयम् । आदित्य । व्रते । तव । अनागस: । अदितये । स्याम ॥४.६९॥
अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:4» पर्यायः:0» मन्त्र:69
बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ईश्वर के नियमों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे स्वीकारकरने योग्य ईश्वर ! (अस्मत्) हम से (उत्तमम्) ऊँचेवाले (पाशम्) पाश को (उत्) ऊपरसे, (अधमम्) नीचेवाले को (अव) नीचे से, और (मध्यमम्) बीचवाले को (वि) विविधप्रकार से (श्रथय) खोल दे। (आदित्य) हे सर्वत्र प्रकाशमान वा अखण्डनीय जगदीश्वर ! (अध) फिर (वयम्) हम लोग (ते) तेरे (व्रते) वरणीय नियम में (अदितये) अदीनापृथिवी के [राज्य के] लिये (अनागसः) निरपराधी (स्याम) होवें ॥६९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर कीआज्ञा का यथावत् पालन कर के धर्माचरण से भूत, भविष्यत्, और वर्तमान क्लेशों कोअलग कर के सदा सुखी रहें ॥६९॥यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० ७।८३।३ ॥
टिप्पणी: ६९-अयं मन्त्रोव्याख्यातः-अ० ७।८३।३ ॥