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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (पितृषदनाः) पितरों [ज्ञानियों] की बैठकवाले (लोकाः) समाज (शुम्भन्ताम्) शोभायमान होवें, (पितृषदने)पितरों की बैठकवाले (लोके) समाज में (त्वा) तुझे (आ सादयामि) मैं बिठालता हूँ॥६७॥
भावार्थभाषाः - ज्ञानी लोग हीविद्वानों के समाजों में शोभा पाते हैं, इसलिये माता-पिता आदि प्रयत्न करें किउन के सन्तान भी विद्वानों में प्रतिष्ठा पावें ॥६७॥इस मन्त्र का पहिला पाद कुछभेद से यजुर्वेद में है−५।२६ ॥
टिप्पणी: ६७−(शुम्भन्ताम्) शुम्भ शोभायाम्। शोभायमानाभवन्तु (लोकाः) समाजाः (पितृषदनाः) पितॄणां सदनयुक्ताः (पितृषदने) पितॄणांसदनयुक्ते (त्वा) त्वाम् (लोके) समाजे (आ) समन्तात् (सादयामि) स्थापयामि ॥