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अभू॑द्दू॒तःप्रहि॑तो जा॒तवे॑दाः सा॒यं न्यह्न॑ उप॒वन्द्यो॒ नृभिः॑। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अभूत् । दूत: । प्रऽहित: । जातऽवेदा: । सायम् । निऽअह्ने । उपऽवन्द्य: । नृऽभि: । प्र । अदा: । पितृऽभ्य: । स्वधया । ते । अक्षन् । अध्दि । त्वम् । देव । प्रऽयता । हवींषि ॥४.६५॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:4» पर्यायः:0» मन्त्र:65


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

पितरों के सत्कार का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (दूतः) चलनेवाला [उद्योगी] (प्रहितः) बड़ा हितकारी (जातवेदाः) महाज्ञानी [वा महाधनी] पुरुष (सायम्) सायंकाल में और (न्यह्ने) प्रातःकाल में (नृभिः) नेताओं करके (उपवन्द्यः) बहुत प्रशंसनीय (अभूत्) हुआ है। [इसलिये] (पितृभ्यः) पितरों [रक्षकमहात्माओं] को (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (प्रयता) शुद्ध [वा प्रयत्न से सिद्धकिये] (हवींषि) ग्रहण करने योग्य भोजन (प्र) अच्छे प्रकार (अदाः) तूने दियेहैं, (ते) उन्होंने (अक्षन्) खाये हैं, (देव) हे विद्वान् ! (त्वम्) तू (अद्धि)खा ॥६५॥
भावार्थभाषाः - उद्योगी, हितकारीविद्वान् लोग सदा से बड़े लोगों के माननीय हुए हैं, इसलिये मनुष्य भोजन आदि सेविद्वानों का सत्कार करके अपनी रक्षा करें और कीर्ति बढ़ावें ॥६५॥इस मन्त्र काउत्तरार्द्ध ऊपर आचुका है-अ० १८।३।४२। और पूर्वार्द्ध का मिलान करो-ऋग्० ४।५४।१॥
टिप्पणी: ६५−(अभूत्) (दूतः) दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।९०। दु गतौ-क्त। गमनशीलः। उद्योगी (प्रहितः) प्रकृष्टो हितकारी (जातवेदाः) उत्पन्नज्ञानः। बहुधनः (सायम्)सूर्यास्ते (न्यह्ने) निगते निश्चयेन प्राप्ते दिने। प्रातःकाले (उपवन्द्यः)महाप्रशंसनीयः (नृभिः) नेतृभिः (प्र) प्रकर्षेण (अदाः) दत्तवानसि (पितृभ्यः) (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (ते) पितरः (अक्षन्) अघसन्। अभक्षयन् (अद्धि) भक्षय (त्वम्) (देव) हे विद्वन् (प्रयता) शुद्धानि। प्रयत्नेन साधितानि (हवींषि)ग्राह्याणि भोजनानि ॥