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त्वे॒षस्ते॑ धू॒मऊ॑र्णोतु दि॒वि षं छु॒क्र आत॑तः। सूरो॒ न हि द्यु॒ता त्वं॑ कृ॒पा पा॑वक॒ रोच॑से॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वेष: । ते । धूम: । ऊर्णोतु । दिवि । सन् । शुक्र: । आऽतत: । सुर: । न । हि । द्युता । त्वम् । कृपा । पावक । रोचसे ॥४.५९॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:4» पर्यायः:0» मन्त्र:59


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

ईश्वर की उपासना का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (ते)तेरा (सन्) श्रेष्ठ, (शुक्रः) निर्मल (आततः) सब ओर फैला हुआ (त्वेषः) प्रकाश [हमको] (दिवि) आकाश में (धूमः) भाप [जैसे, वैसे] (ऊर्णोतु) ढक लेवे। (पावक) हे शोधक ! [परमेश्वर] (सूरःन) जैसे सूर्य (द्युता) अपने प्रकाश से [वैसे] (त्वम्) तू (हि)ही (कृपा) अपनी कृपा से (रोचसे) चमकता है ॥५९॥
भावार्थभाषाः - जैसे मेघ के कण आकाशमें व्यापक रहते हैं, वैसे ही परमात्मा को हम लोग सर्वत्र व्यापक साक्षात् करें, वह कृपालु जगदीश्वर सूर्यसमान सब में प्रकाशमान है ॥५९॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−६।२।६। और सामवेद में पू० १।९।३ ॥
टिप्पणी: ५९−(त्वेषः) त्विषदीप्तौ-पचाद्यच्। प्रकाशः (ते) तव (धूमः) वाष्पो यथा (ऊर्णोतु) आच्छादयतु (दिवि)आकाशे (सन्) श्रेष्ठः (शुक्रः) शुक्लः। शुद्धः (आततः) समन्ताद् विस्तीर्णः (सूरः) प्रेरकः सूर्यः (न) यथा (हि) निश्चयेन (द्युता) दीप्त्या (त्वम्) (कृपा)कृपू सामर्थ्ये-क्विप्। कृपया। दयया (पावक) हे शोधक परमात्मन् (रोचसे) दीप्यसे ॥