ईश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वृषा) परमऐश्वर्यवान्, (विचक्षणः) विशेष दृष्टिवाला परमेश्वर (मतीनाम्) बुद्धियों का (पवते) पवित्रकारी है, [जैसे] (सूरः) सूर्य (दिवः) [अपने] प्रकाश से (अह्नाम्)दिनों का और (उषसाम्) प्रभात वेलाओं का (प्रतरीता) फैलानेवाला है। (सिन्धूनाम्)नदियों के (प्राणः) प्राण [चेष्टा देनेवाले उस परमेश्वर] ने (मनीषया)बुद्धिमत्ता से (इन्द्रस्य) सूर्य के (हार्दिम्) हार्दिक शक्ति में (आविशन्)प्रवेश करके (कलशान्) कलसों [घड़ों समान मेघों] को (अचिक्रदत्) गुंजाया है ॥५८॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपनेप्रकाश से सब पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे ही परमात्मा अपने ज्ञान सेआज्ञाकारी भक्तों की बुद्धियों को निर्मल करता है, वही परमेश्वर सूर्य के भीतरआकर्षण गुण देकर मेघों में गर्जन उत्पन्न करता और जल बरसाता है ॥५८॥यह मन्त्रकुछ भेद से ऋग्वेद में है−९।८६।१९ और सामवेद में पू० ६।७।६ तथा उ० २।१।१७॥