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सर॑स्वतींपि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒णा य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः। आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑मादयध्वमनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सरस्वतीम् । पितर: । हवन्ते । दक्षिणा । यज्ञम् । अभिऽनक्षमाणा: । आऽसद्य । अस्मिन् । बर्हिषि । मादयध्वम् । अनमीवा: । इष: । आ । धेहि । अस्मे इति ॥४.४६॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:4» पर्यायः:0» मन्त्र:46


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सरस्वती के आवाहन का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वतीम्) सरस्वती [विज्ञानवती वेदविद्या] को (दक्षिणा) सरल मार्ग में (यज्ञम्) यज्ञ [संयोगव्यवहार] को (अभिनक्षमाणाः) प्राप्त करते हुए (पितरः) पितर [पालन करनेवालेविज्ञानी] लोग (हवन्ते) बुलाते हैं। [हे विद्वानों !] (अस्मिन्) इस (बर्हिषि)वृद्धि कर्म में (आसद्य) आकर (मादयध्वम्) [सबको] तृप्त करो, [हे सरस्वती !] (अस्मे) हम में (अनमीवाः) पीड़ा रहित (इषः) इच्छाएँ (आ धेहि) स्थापित कर ॥४६॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोगनिर्विघ्न होकर सरल रीति में सबसे मिल कर वेदविद्या के प्रचार से विज्ञान कीवृद्धि और इष्ट पदार्थ की सिद्धि करते हैं ॥४६॥
टिप्पणी: ४५-४७−मन्त्राव्याख्याताः-अ० १८।१।४१-४३ ॥