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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
पितरों की सेवा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे पितृगण !] (यम्)जिस (मन्थम्) मथने से प्राप्त हुए पदार्थ [नवनीत आदि] और (यम्) जिस (ओदनम्) भातआदि [सुसंस्कृत भोजन] को (ते) तेरे लिये और (यत्) जिस (मांसम्) मननसाधक वस्तु [बुद्धिवर्धक मीठे फल बादाम अक्षोट आदि के गूदे, मींग] को (ते) तेरे लिये (निपृणामि) मैं भेंट करता हूँ। (ते) वे [भोजन पदार्थ] (ते) तेरे लिये (स्वधावन्तः) आत्मधारण शक्तिवाले, (मधुमन्तः) मधुर से गुणवाले और (घृतश्चुतः) घी [सार रस] सींचनेवाले (सन्तु) होवें ॥४२॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थ लोग विद्वान्गुणी माता-पिता आदि बड़ों की सेवा घृत, दुग्ध आदि से किया करें, जिससे वे पितरलोग बलवान् रह कर उत्तम-उत्तम कर्म करने में समर्थ होवें ॥४२॥इस मन्त्र काउत्तरार्द्ध ऊपर आ चुका है-अ० १८।३।६८। तथा १८।४।२५ ॥
टिप्पणी: ४२−(यम्) (ते) तुभ्यम् (मन्थम्) विलोडनेन प्राप्तं नवनीतादिपदार्थम् (यम्) (ओदनम्) भक्तम्।सुसंस्कृतान्नम् (यत्) (मांसम्) म० २०। मनसाधकं बुद्धिवर्धकं पदार्थम् (निपृणामि) पॄ पालनपूरणयोः। नियमेन पूरयामि। समर्पयामि (ते) तुभ्यम्। अन्यत्पूर्ववत्-अ० १८।३।६८ तथा १८।४।२५ ॥