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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गोरक्षा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (धनसनिः) धन कमाता हुआ, (इहचित्तः) यहाँ पर चित्त देता हुआ, (इहक्रतुः) यहाँ परकर्म करता हुआ तू (इह) यहाँ पर (एव) ही (एधि) रह। और (वीर्यवत्तरः) अधिकवीर्यवान् होता हुआ, (वयोधाः) बल देता हुआ और (अपराहतः) न मार डाला गया तू (इह)यहाँ पर (एधि) रह ॥३८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्या द्वाराधन आदि प्राप्त करके यहाँ अर्थात् अपने घर, नगर, देश तथा संसार में उपकार करताहुआ महाबली उदार और शत्रुरहित होकर निर्भय होवे ॥३८॥
टिप्पणी: ३८−(इह) अत्र (एव) निश्चयेन (एधि) भव (धनसनिः) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। धन+सन षण सम्भक्तौ-इन्।धनस्य संभाजकः। लम्भकः (इहचित्तः) अस्मिन् देशे कर्मणि वा चित्तं मनो यस्य सः (इहक्रतुः) क्रतुः कर्मनाम-निघ० २।१। अस्मिन् संसारे कर्मयुक्तः (इह) (एधि) भव (वीर्यवत्तरः) अधिकतरो बलवान् (वयोधाः) वयः+डुधाञ् धारणपोषणदानेषु-क्विप्।पराक्रमस्य दाता (अपराहतः) अनपभारितः ॥