बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गृहाश्रम में मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ये) जो (ते) तेरे (पूर्वे) प्राचीन (च) और (ये) जो (अपरे) अर्वाचीन (पितरः) पितर [पालकमहात्मा] (परागताः) प्रधानता से चले हैं। (तेभ्यः) उन के लिये (घृतस्य) जल की (कुल्या) कुल्या [कृत्रिम नाली] (शतधारा) सैकड़ों धाराओंवाली, (व्युन्दती)उमड़ती हुई (एतु) चले ॥७२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य पूर्वज औरवर्तमान महात्माओं से गुण ग्रहण करके संसार को अनेक प्रकार आनन्द देवें, जैसे किकिसान लोग जल की नालियाँ बना खेतों को सींच कर अन्न की वृद्धि से सुख पहुँचातेहैं ॥७२॥इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध कुछ भेद से आगे है-अ० १८।४।५७ ॥
टिप्पणी: ७२−(ये) (ते)तव (पूर्वे) प्राचीनाः (परागताः) प्राधान्येन मताः (अपरे) पश्चाद्भाविनः।अर्वाचीनाः (पितरः) पालका महात्मानः (च) (ये) (तेभ्यः) पितॄणां हिताय (घृतस्य)उदकस्य-निघ० १।१२ कुल्या) कुल-यत्, यद्वा कुल बन्धे संहतौ च-क्यप्, टाप्, कृत्रिमाल्पा नदी (शतधारा) बहुधाराभिरुपेता (व्युन्दन्ती) विशेषेणआर्द्रीकुर्वती ॥