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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गृहाश्रम में मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पते) हे सेवकोंके रक्षक [परमात्मन् !] [वह श्रेष्ठ गुण] (पुनः) निश्चय कर के (देहि) दे, (यःएषः) जो यह [श्रेष्ठ गुण] (त्वयि) तुझ में (निहितः) दृढ़ रक्खा है। (यथा) जिस सेयह [जीव] (यमस्य) न्याय के (सदने) घर में (विदथा) ज्ञानों को (वदन्) बताता हुआ (आसातै) बैठे ॥७०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर केसर्वव्यापक उत्तम गुणों को अवश्य प्रयत्न से प्राप्त करके न्याय के साथ संसारमें उपकार करे ॥७०॥
टिप्पणी: ७०−(पुनः) अवधारणे (देहि) प्रयच्छ श्रेष्ठगुणम् (वनस्पते) वनसेवने-अच्। हे वनानां सेवकानां पालक परमेश्वर (यः) श्रेष्ठगुणः (एषः) (निहितः)दृढं, धृतः (त्वयि) (यथा) येन प्रकारेण (यमस्य) न्यायस्य (सदने) गृहे (आसातै)लेटि रूपम्। आसीत्। उपविशेत् (विदथा) ज्ञानानि (वदन्) कथयन्। उपदिशन् ॥