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प्राच्यां॑ त्वादि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ ॥

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पद पाठ

प्राच्याम् । त्वा । दिशि । पुरा । सम्ऽवृत: । स्वधायाम् । आ । दधामि । बाहुऽच्युता । पृथिवी । द्याम्ऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.३०॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:3» पर्यायः:0» मन्त्र:30


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सर्वत्र परमेश्वर के धारण का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] (प्राच्याम्) पूर्व वा सामनेवाली (दिशि) दिशा में (त्वा) तुझे (स्वधायाम्)आत्मधारण शक्ति के बीच (पुरा) पूर्ति के साथ (संवृतः) घिरा हुआ मैं (आ) सब ओर से (दधामि) मैं [मनुष्य अपने में] धारण करता हूँ, (बाहुच्युता) भुजाओं से उत्साह दीगयी (पृथिवी) पृथिवी (इव) जैसे (द्याम् उपरि) सूर्य पर [सूर्य के आकर्षण, प्रकाशआदि के सहारे पर], [अपने में तुझे धारण करती है]। (लोककृतः) समाजों के करनेवाले, (पथिकृतः) मार्गों के बनानेवाले, [तुम लोगों] को (यजामहे) हम पूजते हैं, (ये) जोतुम (देवानाम्) विद्वानों के बीच (हुतभागाः) भाग लेनेवाले (इह) यहाँ पर (स्थ) हो॥३०॥
भावार्थभाषाः - सर्वथा परिपूर्णपरमेश्वर से पूर्व आदि और सामनेवाली आदि दिशाओं में मनुष्य अपने में आत्मशक्तिपाकर पुरुषार्थ करता है, जैसे पृथिवी सूर्य के आकर्षण आदि में रह कर परमेश्वर कीदी हुई आत्मशक्ति से उपकार करती है। सब मनुष्य हितैषी विद्वानों का आश्रय लेकरउस जगदीश्वर की भक्ति करें ॥३०॥
टिप्पणी: ३०−(प्राच्याम्) पूर्वस्याम्। अभिमुखीभूतायाम् (दिशि) (पुरा) पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२।इत्युत्वम्। पूर्त्या (संवृतः) सम्यग् वेष्टितः (स्वधायाम्) आत्मधारणशक्तौ (आ)समन्तात् (दधामि) धारयामि। अन्यत् पूर्ववत्-म० २५ ॥