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ध॒र्ता ह॑ त्वाध॒रुणो॑ धारयाता ऊ॒र्ध्वं भा॒नुं स॑वि॒ता द्यामि॑वो॒परि॑। लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ ॥

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पद पाठ

धर्ता । ह । त्वा । धरुण: । धारयातै । ऊर्ध्वम् । भानुम् । सविता । द्याम्ऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.२९॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:3» पर्यायः:0» मन्त्र:29


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सब दिशाओं में रक्षा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (धर्ता) पोषण करनेवाला (धरुणः) स्थिर स्वभाववाला परमात्मा (ह) निश्चय करके (त्वा) तुझे (ऊर्ध्वम्) ऊँचा (धारयातै) रक्खे, (इव) जैसे (सविता) सर्वप्रेरक परमेश्वर (भानुम्) सूर्य को (द्याम् उपरि) आकाश पर [रखता है]। (लोककृतः) समाजों के करनेवाले, (पथिकृतः)मार्गों के बनानेवाले [तुम लोगों] को (यजामहे) हम पूजते हैं, (ये) जो तुम (देवानाम्) विद्वानों के बीच (हुतभागाः) भाग लेनेवाले (इह) यहाँ (स्थ) हो ॥२९॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सर्वपोषक, दृढ़ स्वभाववाले पुरुषार्थी जनों को उच्च स्थान देता है, जैसे वह अनेक लोकों केआकर्षक, पोषक सूर्य को आकाश में ऊँचा रखता है। सब मनुष्य सर्वहितैषी विद्वानोंका आश्रय लेकर उस जगदीश्वर की भक्ति करें ॥२९॥
टिप्पणी: २९−(धर्ता) पोषकः (ह) निश्चयेन (त्वा) (धरुणः) कॄवृदारिभ्य उनन्। उ० ३।५३। धृङ् अवस्थाने-उनन्। स्थिरस्वभावःपरमात्मा (धारयातै) लेटि रूपम्। धारयेत् (ऊर्ध्वम्) (भानुम्) सूर्यम् (सविता)सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (द्याम्) आकाशम् (इव) यथा (उपरि) म० २५।आश्रित्येत्यर्थः। अन्यत् पूर्ववत् ॥