पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (अग्निदग्धाः)अग्नि जलानेवाले [हवन आदि करनेवाले गृहस्थ आदि] और (ये) जो (अनग्निदग्धाः) अग्निको नहीं जलानेवाले पुरुष [आहवनीय आदि भौतिक यज्ञ अग्नि छोड़ देनेवाले संन्यासी] (दिवः) ज्ञान के (मध्ये) बीच (स्वधया) आत्मधारण शक्ति से (मादयन्ते) आनन्द पाते हैं।(जातवेदः) हे पूर्ण ज्ञानी पुरुष ! (त्वम्) तू (तान्) उन को (यदि) जो (वेत्थ)जानता है, (ते) वे (स्वधया) अन्न के साथ (स्वधितिम्) स्वधारण शक्तिवाले (यज्ञम्)यज्ञ [पूजनीय व्यवहार] का (जुषन्ताम्) सेवन करें ॥३५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित हैकि हवन आदि यज्ञ करनेवाले ब्रह्मचारी, गृहस्थ लोगों को और भौतिक अग्नि के यज्ञको छोड़कर ज्ञानयज्ञ करनेवाले संन्यासी विद्वानों को यथाविधि सत्कार से बुलावेंऔर उन से श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करें ॥३५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।१४, १३ और यजुर्वेद−१९।७, ६७ ॥भगवान् मनु ने इस आशय को इस प्रकार वर्णनकिया है ॥ अध्याय ६ श्लोक ३६, ३८ ॥ अधीत्य विधिवद् वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्यधर्मतः। इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ॥१॥ प्राजापत्यांनिरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम्। आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात् ॥२॥विधिपूर्वक वेदों को पढ़कर और धर्म से सन्तानों को उत्पन्न कर के औरयथाशक्ति यज्ञों को कर के मन को मोक्ष [अर्थात् संन्यासाश्रम] में लगावे॥१॥प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति करानेवाले, सर्वस्व दक्षिणावाले यज्ञ को कर केआत्मा में [आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणात्य] अग्नियों को समारोपित करकेब्राह्मण, वेद और ईश्वर जाननेवाला पुरुष, गृहाश्रम से संन्यास लेवे ॥२॥