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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्यों का पितरों के साथ कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे महात्मन्] (ते)तेरे लिये (याम्) जिस (धेनुम्) दुधैल गौ को (उ) और (ते) तेरे लिये (यम् ओदनम्)जिस भात को (क्षीरे) दूध में (निपृणामि) मैं रखता हूँ। (तेन) उसी [कारण] से तू (जनस्य) उस मनुष्य का (भर्ता) पोषक (असः) होवे, (यः) जो [मनुष्य] (अत्र) यहाँ (अजीवनः) निर्जीव [बिना जीविका, निर्बल] (असत्) होवे ॥३०॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य दुग्ध अन्नआदि से विद्वान् महात्माओं की सेवा करते हैं, वे पुरुषार्थी अपना जीवन निर्विघ्नबिताते हैं ॥३०॥
टिप्पणी: ३०−(याम्) (ते) तुभ्यम् (धेनुम्) दोग्ध्रीं गाम् (निपृणामि) पॄपालनपूरणयोः। नितरां पालयामि। धरामि (यम्) (उ) चार्थे (क्षीरे) दुग्धे (ओदनम्)भक्तम्। स्विन्नान्नम् (तेन) कारणेन (जनस्य) तस्य पुरुषस्य (असः) भवेः (भर्त्ता)पोषकः (यः) (अत्र) (असत्) भवेत् (अजीवनः) निर्जीवकः। निर्बलः ॥